me
मैं जो मुझमें मुझको दिखता है वो मैं हूँ क्या ? इतना कुछ है भीतर भीतर थोडा सा दिख जाता बाहर जो खुद अपने से छिपता है वो मैं हूँ क्या ? दिखने को जो ठाट हैं सच में तो बस हाट लगे हैं इन हाटों पर जो बिकता है वो मैं हूँ क्या ? मैं चलता हूँ भटक-भटक कर कहीं ठहरता कभी ठिठक कर एक जगह पर जो टिकता है वो मैं हूँ क्या ? जगह जगह पे अक्षर आते मेरे मन में अक्सर गाते इन गीतों को जो लिखता है वह मैं हूँ क्या ? mere blog me Mradul ji