Posts

Showing posts from 2015

beta

          बेटे ................................. एक सात वर्षीय बेटा दूसरी कक्षा मैं प्रवेश पा गया .... क्लास मैं हमेशा से अव्वल आता रहा है ! पिछले दिनों तनख्वाह मिली तो मैं उसे नयी स्कूल ड्रेस और जूते दिलवाने के लिए बाज़ार ले गया ! बेटे ने जूते लेने से ये कह कर मना कर दिया की पुराने जूतों को बस थोड़ी-सी मरम्मत की जरुरत है वो अभी इस साल काम दे सकते हैं! अपने जूतों की बजाये उसने मुझे अपने दादा की कमजोर हो चुकी नज़र के लिए नया चश्मा बनवाने को कहा ! मैंने सोचा बेटा अपने दादा से शायद बहुत प्यार करता है इसलिए अपने जूतों की बजाय उनके चश्मे को ज्यादा जरूरी समझ रहा है ! खैर मैंने कुछ कहना जरुरी नहीं समझा और उसे लेकर ड्रेस की दुकान पर पहुंचा..... दुकानदार ने बेटे के साइज़ की सफ़ेद शर्ट निकाली ... डाल कर देखने पर शर्ट एक दम फिट थी..... फिर भी बेटे ने थोड़ी लम्बी शर्ट दिखाने को कहा !!!! मैंने बेटे से कहा : बेटा ये शर्ट तुम्हें बिल्कुल सही है तो फिर और लम्बी क्यों ? बेटे ने कहा :पिता जी मुझे शर्ट निक्कर के अंदर ही डालनी होती है इसलिए थोड़ी लम्बी भी होगी तो कोई फर्क ...

क्योंकि मैं वो मानव हूँ जो मानव नहीं समझा जाता

मन तो मेरा भी करता है मॉर्निग वॉक पर जाऊं मैं, सुबह सवेरे मालिश करके थोड़ी दंड लगाऊं मैं, बूढ़ी मॉ के पास में बैठूं और पॉव दबाऊँ मैं लेकिन मैं इतना भी नही कर पाता, क्योंकि मैं वो मानव हूँ जो मानव नही समझा जाता ****************** हमने बर्थ डे की पिघली हुई मोमबत्तियॉ देखी है, हमने पापा की राह तकती सूनी अंखियाँ देखी हैं, हमने पिचके हुए रंगीन गुब्बारे देखे हैं, पर बच्चे के हाथ से मैं केक नही खा पाता, क्योंकि मैं वो मानव हूँ जो मानव नही समझा जाता ******************** निज घर करके अंधेरा सबके दिये जलवाये हैं, कहीं सजाया भोग कहीं गोवर्धन पुजवायें हैं, और भाई बहिन को यमुना स्नान करवाये हैं, पर तिलक बहिन का मेरे माथे तक नही आ पाता, क्योंकि मैं वो मानव हूँ जो मानव नहीं समझा जाता ******************** हमने ईद दिवाली दशहरा खूब मनाये हैं, ईस्टर,किर्समस,वैलेंटाइन और फ्राइडे मनाये हैं, पर मैं कोई होलीडे संडे नही मना पाता, क्योंकि मैं वो मानव हूँ जो मानव नहीं समझा जाता ******************** आपदा फायरिंग या विस्फोट या एक्सीडेंट पर आना है, सब भागें दूर- दूर पर हमें हॉस्पिटल आपातकाल में ही जाना है, र...

बेजुबान पत्थर पे लदे है करोडो के गहने मंदिरो में ।

बेजुबान पत्थर पे लदे है करोडो के गहने मंदिरो में । उसी देहलीज पे एक रूपये को तरसते नन्हे हाथो को देखा है।। सजे थे छप्पन भोग और मेवे मूरत के आगे । बाहर एक फ़कीर को भूख से तड़प के मरते देखा है ।। लदी हुई है रेशमी चादरों से वो हरी मजार ,पर बहार एक बूढ़ी अम्मा को ठंड से ठिठुरते देखा है। वो दे आया एक लाख गुरद्वारे में हाल के लिए , घर में उसको 500 रूपये के लिए काम वाली बाई बदलते देखा है। सुना है चढ़ा था सलीब पे कोई दुनिया का दर्द मिटाने को, आज चर्च में बेटे की मार से बिलखते माँ बाप को देखा है। जलाती रही जो अखन्ड ज्योति देसी घी की दिन रात पुजारन , आज उसे प्रसव में कुपोषण के कारण मौत से लड़ते देखा है । जिसने न दी माँ बाप को भर पेट रोटी कभी जीते जी , आज लगाते उसको भंडारे मरने के बाद देखा । दे के समाज की दुहाई ब्याह दिया था जिस बेटी को जबरन बाप ने, आज पीटते उसी शौहर के हाथो सरे राह देखा है । मारा गया वो पंडित बेमौत सड़क दुर्घटना में यारो , जिसे खुदको काल सर्प,तारे और हाथ की लकीरो का माहिर लिखते देखा है । जिस घर की एकता की देता था जमाना कभी मिसाल दोस्तों , आज उसी आँगन में खिंचती दी...

Ekram Rajasthani

कोई बलंदी, कुछ गहराइयों में उलझे हैं।  लोग, सब अपनी ही परछाइयों में उलझे हैं।  बनायेंगे भला, किस तरहा अपना मुस्तकबिल,  जो लोग-माजी के कुछ वाकयों में उलझे हैं।  सामने होते जो दुश्मन, तो हम निकल जाते,  आपको कैसे कहें, दोस्तों में उलझे हैं।  गजल अवाम के दिल में उतर चुकी कब की,  और शौरा, रदीफ, काफयों में उलझे हैं।  मकाम, शायरी में कुछ भी नहीं है लेकिन  हमारे दोस्त, गलत फहमियों में उलझे हैं।  रदीफ भूल गए अपनी जन्दगी की जो,  हमेशा उलझे हुए काफियों में उलझे हैं। स  आँखों से दर-बाम का, रिश्ता नहीं रहा।  आपस में, सुब्हो शाम का, रिश्ता नहीं रहा।  वो बेवफा नहीं है, फकत इतनी बात है,  हमसे, दुआ, सलाम का, रिश्ता नहीं रहा।  सारा जमाना घूम के, हम देख चुके हैं,  अब कोई भी तो काम का, रिश्ता नहीं रहा।  फुट पाथ पे बिकते हैं, खिलौनों की तरह से,  दुनिया में, बिना दाम का रिश्ता नहीं रहा।  जो दिल में धडकते थे, कभी, दोस्त की तरह  अब उनसे भी, इकराम का, रिश्ता नहीं रहा। mere Blog pe इकराम राजस्थानी  ...

me

मैं  जो मुझमें मुझको दिखता है वो मैं हूँ क्या ?  इतना कुछ है भीतर भीतर थोडा सा दिख जाता बाहर जो खुद अपने से छिपता है वो मैं हूँ क्या ?  दिखने को जो ठाट हैं सच में तो बस हाट लगे हैं इन हाटों पर जो बिकता है वो मैं हूँ क्या ?  मैं चलता हूँ भटक-भटक कर कहीं ठहरता कभी ठिठक कर एक जगह पर जो टिकता है वो मैं हूँ क्या ?  जगह जगह पे अक्षर आते मेरे मन में अक्सर गाते इन गीतों को जो लिखता है वह मैं हूँ क्या ? mere blog me Mradul ji

this valentine day

मुस्कान और सुगन्ध  पुष्प ! कल तुम मुरझा जाओगे फिर क्यों मुस्कुराते हो ? व्यर्थ में यह ताजगी किसलिए लुटाते हो ?  फूल चुप रहा - इतने में एक तितली आई क्षण भर आनन्द लिया, उड गई एक भौंरा आया गान सुनाया, चला गया सुगन्ध बटोरी, आगे बढ गया खेलते हुए एक बालक ने स्पर्श सुख लिया रूप-लावण्य को निहारा फिर खेलने लग गया ।  तब फूल बोला - मित्र् ! क्षण भर को ही सही मेरे जीवन ने कितनों को सुख दिया है क्या तुमने कभी ऐसा किया है ? कल की चिन्ता में आज के आनन्द में विराम क्यों करूँ ? माटी ने जो रूप, रस, गंध और रंग दिया है उसे बदनाम क्यों करूँ*?

sohan prakash

 अब उसे भी याद कर !  झूठ की बुनियाद पर, रिश्ते बनाना छोड दे।  पंछियों को जाल में अपने फंसाना छोड दे।।  जिस्म ताकतवर जो है, तो दूसरों की कर मदद,  पर किसी कमजोर को, ताकत दिखाना छोड दे।।  वो भी इक इन्सान है, मुफलिस हुआ तो क्या हुआ,  प्यार से कर बात उसका, दिल दुखाना छोड दे।।  नेकियां ही आदमी को जिन्दा रखती हैं सदा,  बे वजह ही तू किसी को अब सताना छोड दे।।  देखता है ’वो‘ सभी कुछ और देता है सजा,  तुझ को जुल्मों के लिये, चाहे जमाना छोड दे।।  कर लिया सब ऐश ’सोहन‘ अब उसे भी याद कर,  कम बचा है वक्त इस का यूं गंवाना छोड दे।।  sohan prakash mere blog pe

EK kavita

मत समझिये कि मैं औरत हूँ, नशा है, मुझमें  माँ भी हूँ बहन भी, बेटी भी, दुआ है मुझमें  हुस्न है, रंग है, खुशबू है, अदा है मुझमें  मैं मुहब्बत हूँ, इबादत हूँ, वघ है मुझमें  कितनी आसानी से कहते हो कि क्या है मुझमें  जब्त है, सब्र-सदाकत है, अना है मुझमें  मैं फकत जिस्म नहीं हूँ कि फना हो जाऊं  आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें  मुझको करता है खबरदार खता से पहले  मुझको इतनी है तसल्ली कि खुदा है मुझमें  इक ये दुनिया जो मुहब्बत में बिछी जाये है  एक वो शख्स जो मुझसे ही खफा है मुझमें  अपनी नजरों में ही कद आज बढा है अपना  जाने कैसा ये बदल आज हुआ है मुझमें  दुश्मनों में भी मेरा जिक्र ‘किरण’ है अक्सर  बात कोई तो जमाने से जुदा है मुझमें ...  पते सहरा को दरिया दे क्या कोई ऐसा भी है  खुश्क तोहफे में गुडया दे क्या कोई ऐसा भी है  बादल ने तो छला हमेशा रस्ता तकती फसलों को  सूखे खेतों को हरिया दे क्या कोई ऐसा भी है  फिक्र-तनावों के चलते अब पलक कहाँ मुंद पाती है  जो जगरातों को निंदिया दे क्या कोई ...

hastimal hasti

अच्छे-अच्छे बचते हैं  सच को दार समझते हैं  तुमसे तो काँटे अच्छे  सीधे-सीधे चुभते हैं  फूलों की दूकानों के  पत्थर तलक महकते हैं  सबके बस का रोग नहीं  जिसे फकीरी कहते हैं  फूल महकने वाले तो  खिलते-खिलते-खिलते हैं।  mereBlog pe 

गई कलम की धार कहाँ है ?

गई कलम की धार कहाँ है ? खनक रहा कलदार जहाँ है ।।  सर्जक सत्ता के गिरवी हैं, सच का पहरेदार कहाँ है ?  शब्द हुए क्योंकर बेमानी, ओस और अंगार कहाँ है ?  कागज कारे करते कितने, अक्षर में ओंकार कहाँ है ?  दूर उजालों में जो बस्ती, वहाँ तीज-त्योहार कहाँ है ? ab na basanti dhar kaha he. tera wo ehsas kaha he. pushpendra Written By  डॉ. मनोहर प्रभाकर

MADAM G

story of a madam. a educated lady. struggle her life. love,romance, success new drama new film by raj kumar sir